आज बडे भाई का अमूल्य होली सन्देश आप सब के साथ शेयर करना चाहती हूँ:-
फागुन का मेरे दिल से सम्बन्ध पुराना है,
मारा नहीं है फाग प्राण में बारह आना है ;
मह मह हाट लगाती पछुआ ,
फुनगी पे अमराई की ,
बौर महकते हैं ज्यों मादक देह गंध तरुणाई की !
मन निर्वस्त्र पलाश सा ,तोड़ रहा सम्बन्ध ;
पीपल रेशम ओढ़ के,बांचे फागुन छंद !
सदा अनंद रहे हर द्वारे ,कान्हा खेले फाग ;
हर मन में हुलसा करे फागुन सा अनुराग।
बचपन एक बार फिर होली के झरोखे से झाँकने लगा ..जब छोटे थे तो मां ने होलिका और प्रह्लाद की कहानी सुनाती थी ..थोडा बड़े हुए तो भाई बहन पिचकारी लेके एक दुसरे पे रंग डालने लगते थे .
फिर सड़क पर होली की टोलियाँ गाने गाती निकलती थी..सब अच्छा लगता था ..हम लोगगों का घर किसी मोहल्ले मैं था नहीं इसलिए पास पड़ोस की रौनक से अनभिज्ञ थे..
घर के आसपास बाज़ार होने की वजह से होली के हुडदंग कुछ अलग ही अंदाज़ में देखने को मिलता था , होलिका दहन के दिन होली की टोली घर घर घूम के चंदा वसूल करते थे और रात को कहीं होली जला दी जाती थी ..कभी जलते देखा ही नहीं होली..
सुबह के समय बच्चे जवान सब रंग भरी बाल्टी और पिचकारी लेके आते जाते सबको रंग से नहलाते थे .अगर किसी को नहीं पसंद उसे भी जबरदस्त तरीके से पकड़ कर रंग से नहला देते थे..लोगों का सदक्पर चलना मुश्किल हो जाता था चाहे कोई बचा हो या वृद्ध या कोई महिला कोई भी नहीं बच पाता था..मन में अजीब सा डर कब बैठ गया रंगों से, पता ही नहीं चला ..एक ही सवाल उठता था होली के नाम पे जबरदस्ती क्या जरूरी है?
जवाब यही मिलता "बुरा न मानो होली है "..
पर आज तक वो रंगों का डर मन से पूरी तरह से निकल नहीं पायी हूँ..होली जैसा त्यौहार जो अद्भुत सन्देश लाता है मेरे मन से रंगों का भय नहीं निकल पाया ..
हर साल होली जब आती तो यही मन होता कब रंग वाली जबरदस्ती की होली ख़त्म होगी ..पर होली की शाम का बेसब्री से इंतज़ार होता था ..हम भाई बहन शाम को नए कपडे पहन कर तैयार होकर पिताजी के साथ मंदिर जाते थे ..वहां का दृश्य अद्भुत होता था ..मंदिर के पुजारी एक वृद्ध और और एक सूरदास जी थे...वृद्ध पुजारी जी होली के गीत सुनते और सूरदास जी हमोनियम बजाते ..आज भी वो बोल याद आते हैं..
होली खेलत रघुवीरा अवध में,होली खेलत रघुवीरा ;
राम के हाथ कनक पिचकारी ,लछमन हाथ अबीरा..
फिर हम बच्चे मिलकर सुन्दरकाण्ड रामायण पढ़ते थे ..फिर ठंडाई बनती थी मंदिर प्रांगण में जिसे हम बड़े मज़े से पीते थे
खट्टी मीठी यादें कहीं न कहीं दिल को आज भी झकझोरती ही हैं.आज भी अनजाने में अपने द्वारा किया दुर्व्यवहार दिल को दर्द देता है।
फिर भी अतीत कि गलतियां आगे सुधरने का अवसर भी तो देती हैं। .
आइये इस शुभकामनाओं के साथ.....
पिचकारी की धार ,
गुलाल कि बौछार ,
अपनों का प्यार ,
यही है यारों होली का त्यौहार
होली की हार्दिक बधाई !!!
मारा नहीं है फाग प्राण में बारह आना है ;
मह मह हाट लगाती पछुआ ,
फुनगी पे अमराई की ,
बौर महकते हैं ज्यों मादक देह गंध तरुणाई की !
मन निर्वस्त्र पलाश सा ,तोड़ रहा सम्बन्ध ;
पीपल रेशम ओढ़ के,बांचे फागुन छंद !
सदा अनंद रहे हर द्वारे ,कान्हा खेले फाग ;
हर मन में हुलसा करे फागुन सा अनुराग।
बचपन एक बार फिर होली के झरोखे से झाँकने लगा ..जब छोटे थे तो मां ने होलिका और प्रह्लाद की कहानी सुनाती थी ..थोडा बड़े हुए तो भाई बहन पिचकारी लेके एक दुसरे पे रंग डालने लगते थे .
फिर सड़क पर होली की टोलियाँ गाने गाती निकलती थी..सब अच्छा लगता था ..हम लोगगों का घर किसी मोहल्ले मैं था नहीं इसलिए पास पड़ोस की रौनक से अनभिज्ञ थे..
घर के आसपास बाज़ार होने की वजह से होली के हुडदंग कुछ अलग ही अंदाज़ में देखने को मिलता था , होलिका दहन के दिन होली की टोली घर घर घूम के चंदा वसूल करते थे और रात को कहीं होली जला दी जाती थी ..कभी जलते देखा ही नहीं होली..
सुबह के समय बच्चे जवान सब रंग भरी बाल्टी और पिचकारी लेके आते जाते सबको रंग से नहलाते थे .अगर किसी को नहीं पसंद उसे भी जबरदस्त तरीके से पकड़ कर रंग से नहला देते थे..लोगों का सदक्पर चलना मुश्किल हो जाता था चाहे कोई बचा हो या वृद्ध या कोई महिला कोई भी नहीं बच पाता था..मन में अजीब सा डर कब बैठ गया रंगों से, पता ही नहीं चला ..एक ही सवाल उठता था होली के नाम पे जबरदस्ती क्या जरूरी है?
जवाब यही मिलता "बुरा न मानो होली है "..
पर आज तक वो रंगों का डर मन से पूरी तरह से निकल नहीं पायी हूँ..होली जैसा त्यौहार जो अद्भुत सन्देश लाता है मेरे मन से रंगों का भय नहीं निकल पाया ..
हर साल होली जब आती तो यही मन होता कब रंग वाली जबरदस्ती की होली ख़त्म होगी ..पर होली की शाम का बेसब्री से इंतज़ार होता था ..हम भाई बहन शाम को नए कपडे पहन कर तैयार होकर पिताजी के साथ मंदिर जाते थे ..वहां का दृश्य अद्भुत होता था ..मंदिर के पुजारी एक वृद्ध और और एक सूरदास जी थे...वृद्ध पुजारी जी होली के गीत सुनते और सूरदास जी हमोनियम बजाते ..आज भी वो बोल याद आते हैं..
होली खेलत रघुवीरा अवध में,होली खेलत रघुवीरा ;
राम के हाथ कनक पिचकारी ,लछमन हाथ अबीरा..
फिर हम बच्चे मिलकर सुन्दरकाण्ड रामायण पढ़ते थे ..फिर ठंडाई बनती थी मंदिर प्रांगण में जिसे हम बड़े मज़े से पीते थे
खट्टी मीठी यादें कहीं न कहीं दिल को आज भी झकझोरती ही हैं.आज भी अनजाने में अपने द्वारा किया दुर्व्यवहार दिल को दर्द देता है।
फिर भी अतीत कि गलतियां आगे सुधरने का अवसर भी तो देती हैं। .
आइये इस शुभकामनाओं के साथ.....
पिचकारी की धार ,
गुलाल कि बौछार ,
अपनों का प्यार ,
यही है यारों होली का त्यौहार
होली की हार्दिक बधाई !!!