" इस उद्धरण के साथ निबंध की शुरवात होती थी..
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" घरों का मैल हटाने को,सफेदी से पुतवाने को :
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" घरों का मैल हटाने को,सफेदी से पुतवाने को :
पुराना नया बंनाने को ,अनेको साज सजाने को :
दिवाली प्यारी आई है, दिवाली न्यारी आई है" |
फिर घर की सफाई , पेंट और सफेदी का सिलसिला शुरू होता था , चारो तरफ एक अलग सी महक होती थी
समय के साथ विकसित दौर में दिवाली की तैयारियां भी बदल गईं ,कहाँ वो मिट्टीके दिए लाना ,रुई की बाती बनाना ,दिए भिगाना और सुखाना फिर शाम के लिए दियों को पंक्तिबद्ध करना वगैरह ........घर में नमकीन एवं मिष्ठान बनाने में ड्यूटी लगना और जी चुराना तथा कोसना कि त्यौहार इतनी जल्दी क्यों आते हैं!! ....फिर शुरू होता था नए कपड़ों का सिलसिला .. दौड़ दौड़ के दियों को सजाते हुए रखने की जो ख़ुशी होती थी अद्भुत थी, इतना ही नहीं, पूजा के लिए भी उत्साह कम नहीं होता था | गणेश लक्ष्मी जी की मिट्टी की मूर्ति लाते थे ..,फिर सबसे महत्वपूर्ण, पटाखे चलाना, माँ ,पिताजी और भाई बहन के साथ.......दूसरे दिन का उत्साह था सुबह उठ के जले हुए दिए इकठ्ठा करना फिर उससे तराजू बना कर खेलना.......
आज की पीढ़ी की दिवाली कितनी परिवर्तित है पर ये भी उनके लिए उतनी ही प्यारी है जैसे हमे हमारी दिवाली..
आज तकनीकी युग में छोटे छोटे बल्बों की कतारें खूबसूरती में में चार चाँद लगाती हैं ,चांदी के गणेश लक्ष्मीजी,
सब कुछ जगमगाता है....अब तो ऑनलाइन पूजाभी चलन में है..पर सच है इन सबके पीछे भी इंसान का मस्तिष्क अगर लगा है तो निश्चय ही कहीं तो संस्कार आज भी कायम है.....इस परिवर्तन के आगे नतमस्तक होना लाजमी है.....कौन कहता है की अब वो संस्कार नहीं रहे.......ज़रूरत है सिर्फ उने अहसास दिलाने की ......जो हर पीढ़ी का धर्म हैं .....आज भी जाम्बवंत को हनुमान का बल याद दिलाना है कुछ इस तरह .
"कवन सो काज कठिन जग माहि,जो नहीं होत तात तुम्ह पाहि .".....अंत में आप सभी को दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएं!!!!!!!!!!!
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