बचपन मे धर्मवीर भारती द्वारा प्रकाशित "धर्मयुग "में एक कविता पढ़ी थी ..यह कविता उस समय प्रकाशित हुई थी जब महानायक अमिताभ बच्चन जी" कुली " फिल्म की शूटिंग करते समय घायल हुए थे और ब्रीच कैंडी अस्पताल में भर्ती थे ....
उनकी ही शायद कोई एक कविता थी ,'The withered flower'
जिसका अनुवाद हिंदी में उनके पिता श्री हरिवंशराय बच्चन ने किया था .. पहले कविता की कुछ ही पंक्तिया याद थी मुझे ,पर अभी मैं अपने बड़े भाई से मिलने वाराणसी गयी थी उनसे पूछ कर कुछ और पंक्तियाँ संगृहीत किया ..अभी भी नहीं पता की ये पूरी हैं या नहीं ..
कविता कुछ इस प्रकार थी..
अन्धकार में मंद हवा का एक झकोरा ,
एक नदी की शिथिल धार है मेरा मन ,
मेरी पीड़ा विगलित विचार,
मेरी शंकाएं,
गलित पुष्प सी ,
जल के तल पे ,
अनायास बहती जाती हैं धीरे धीरे ,
वह करती हैं प्यार
मुझे करती आई हैं
और करेंगी ;
किन्तु चमत्कृत करने वाले
मुझे तीन क्षण
एक त्रिभुज के तीन बिंदु से
तीन दिशा में चिटक गए हैं ;
एक दुसरे से सामान अंतर पर
मेरा मन अशांत ,विक्रांत,भ्रांत हो
उस त्रिकोण के अन्दर अन्दर
एक बिंदु को केंद्र बनाकर
घूम रहा है ;
कभी एक रेखा छूता है
कभी दूसरी, कभी तीसरी ;
दौड़ बिंदु से बिंदु बिंदु तलक
अविरत जारी है ;
पल रुकने को कहीं नहीं ,कहीं नहीं
कहीं नहीं रे,
अन्धकार फिर घिर आता है
आंसू से बोझल बदल का टुकड़ा
धीरे धीरे तिरता
करता है संकेत विदा का ;
हवा बही जाती है, नदी चली जाती है
गलित पुष्प
बहता बहता
खोजता किनारा ;
तट से टकरा कर
पल भर को
थम जाता है.........
आप सबसे अनुरोध है अगर ये कविता कहीं मिले तो जरूर पोस्ट करे।
उनकी ही शायद कोई एक कविता थी ,'The withered flower'
जिसका अनुवाद हिंदी में उनके पिता श्री हरिवंशराय बच्चन ने किया था .. पहले कविता की कुछ ही पंक्तिया याद थी मुझे ,पर अभी मैं अपने बड़े भाई से मिलने वाराणसी गयी थी उनसे पूछ कर कुछ और पंक्तियाँ संगृहीत किया ..अभी भी नहीं पता की ये पूरी हैं या नहीं ..
कविता कुछ इस प्रकार थी..
अन्धकार में मंद हवा का एक झकोरा ,
एक नदी की शिथिल धार है मेरा मन ,
मेरी पीड़ा विगलित विचार,
मेरी शंकाएं,
गलित पुष्प सी ,
जल के तल पे ,
अनायास बहती जाती हैं धीरे धीरे ,
वह करती हैं प्यार
मुझे करती आई हैं
और करेंगी ;
किन्तु चमत्कृत करने वाले
मुझे तीन क्षण
एक त्रिभुज के तीन बिंदु से
तीन दिशा में चिटक गए हैं ;
एक दुसरे से सामान अंतर पर
मेरा मन अशांत ,विक्रांत,भ्रांत हो
उस त्रिकोण के अन्दर अन्दर
एक बिंदु को केंद्र बनाकर
घूम रहा है ;
कभी एक रेखा छूता है
कभी दूसरी, कभी तीसरी ;
दौड़ बिंदु से बिंदु बिंदु तलक
अविरत जारी है ;
पल रुकने को कहीं नहीं ,कहीं नहीं
कहीं नहीं रे,
अन्धकार फिर घिर आता है
आंसू से बोझल बदल का टुकड़ा
धीरे धीरे तिरता
करता है संकेत विदा का ;
हवा बही जाती है, नदी चली जाती है
गलित पुष्प
बहता बहता
खोजता किनारा ;
तट से टकरा कर
पल भर को
थम जाता है.........
आप सबसे अनुरोध है अगर ये कविता कहीं मिले तो जरूर पोस्ट करे।
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