Tuesday, June 25, 2013

यादों के झरोखे से ...बांसुरीवाले सईद भाई ..

बचपन में पिताजी के चर्चित दरबार( जिसे हम सब बादशाह का दरबार कहते थे)  में एक सईद भाई आते थे अंधे थे ,सड़क पे बांसुरी की धुन बजाते धीरे धीरे एक किनारे अपने कदमों को भी एक लय  मे साधते  थे उनकी कोई तस्वीर तो नहीं है जो  यहाँ प्रस्तुत कर सकूं पर वो हमारी यादों में  आज भी जीवंत है।
.उनकी बांसुरी की धुन सुनते ही हम सब हिंदी फिल्मों के गानों की लिस्ट लेकर हाज़िर रहते थे ..उन्हें हाथ पकड़ के पिताजी के पास लाते और बैठाते थे और फिर चाय पिलाते। .चाय पीकर वो हम बच्चों से मुस्कराते हुए पूछते," कौन सा गाना सुनना है ?" हम शरमाते हुए अपनी फरमाइश बता देते। शुरू हो जाते वो धुन निकलने में  और हम सब मंत्रमुग्ध हो जाते।
आज यू ट्यूब के गाने सुनने से भी वो ख़ुशी नहीं मिलती जितना सईद  भाई के गाने बांसुरी से सुनाने से मिलती थी। एक निर्गुण बहुत गाते थे ..कुछ इस प्रकार ...
झुलनी का रंग सांचा हमार पिया ,
झुलनी में  गोरी लगा हमार पिया ...

कवन सोनरवा बनावे रे झुलानिया ,
देई अग्नि का आँचा  हमार पिया ..
झुलनी में  ....................

गाना सुना के फिर वो जाने को उठते तो हम फिर एक फरमाइश रखते ..कभी पूरा करते कभी देर होने की वजह से फिर कल आने का वादा कर के चलने को उठते।हम भाई बहन उन्हें फिर सड़क पार करवा के उनके राह पर पहुंचा देते थे और फिर मधुर संगीत के साथ आगे बढ़ते चले जाते और हम तब तक धुन को सुनते जब तक की वंशी की धुन सुनाई देती ..
एक वंशी वाला द्वापर युग में था एक हमारे भी बचपन में था जिसने हमे प्रभावित किया ..

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