Thursday, November 14, 2013

बाल दिवस पर बच्चों के निष्पाप व निर्मल भावनाओं के लिए सप्रेम नमन. ” ..

बचपन से ही बड़े भाई के मुह से श्री सुमित्रानंदन पन्त की पंक्तिया सुनती रहती थी ..जिसमे उन्होंने एक बार पैसे  बोये ये सोच कर की पैसे के पेड़ बनेंगे और वो खूब सारे पैसे के मालिक होंगे ..आज ये कविता की पूरी पंक्तिया आपके सामने प्रस्तुत कर रही हूँ जिसमे बाल मन की जिज्ञासा और भोलापन निहित है,..

यह धरती कितना देती है....


 मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे,
 सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,
 रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी ,
और फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूँगा!
 पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
 बन्ध्या मिट्टी नें न एक भी पैसा उगला!-
 सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये! 
मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक
 बाल-कल्पना के अपलर पाँवडडे बिछाकर
मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे, 
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था!
 अर्द्धशती हहराती निकल गयी है तबसे!
 कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने, 
ग्रीष्म तपे, वर्षा झूली, शरदें मुसकाई;
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे, खिले वन!
 और  जब फिर से गाढ़ी, ऊदी लालसा लिये 
 गहरे, कजरारे बादल बरसे धरती पर,
 मैंने कौतूहल-वश आँगन के कोने की 
गीली तह यों ही उँगली से सहलाकर
 बीज सेम के दबा दिये मिट्टी के नीचे
भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिये हो!
 मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को,
 और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन!
 किन्तु, एक दिन जब मैं सन्ध्या को
 आँगन में टहल रहा था,- तब सहसा,
 मैने देखा उसे हर्ष-विमूढ़ हो उठा
 मैं विस्मय से! देखा-आँगन के कोने में
 कई नवागत छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं!
 छांता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की,
 या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं प्यारी- 
जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे 
पंख मारकर उड़ने  उत्सुक लगते थे-
 डिम्ब तोड़कर निकले चिडियों के बच्चों से!
 निर्निमेष, क्षण भर, मैं नको रहा देखता-
 सहसा मुझे स्मरण हो आया,
-कुछ दिन पहिले बीज सेम के मैने पे थे आँगन में, 
और उन्हीं से बौने पौधो की यह पलटन
 मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से,
 नन्हें नाटे पैर पटक, बढती जाती है!
 तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे
 अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ,
 हरे-भरे टंग गये कई मखमली चँदोवे!

 बेलें फैल गयी बल खा, आँगन में लहरा
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का
 हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को,-
 मैं अवाक् रह गया-वंश कैसे बढ़ता है!
 इतनी फलियाँ टूटी, जाड़ो भर खाई,
 सुबह शाम वे घर-घर पकीं, 
पड़ोस पास के जाने-अनजाने
 सब लोगों में बँटबाईबंधु-बांधवों,

 मित्रों, अभ्यागत मँगतों ने जी भर-भर

 दिन-रात महुल्ले भर ने खाई !-

 कितनी सारी फलियाँ,
 यह धरती कितना देती है! धरती माता कितना देती है
 अपने प्यारे पुत्रों को! नही समझ पाया था मैं उसके महत्व को,
 बचपन में छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर! 
रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ।
 इसमें सच्ची समता के दाने बोने है;
 इसमें जन की क्षमता का दाने बोने है,
 इसमें मानव-ममता के दाने बोने है,-
 जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें मानवता की, -
 जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ-
 हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पाएंगे ..

सच कहे तो बच्चें निष्पाप होते हैं, ये तो हमारे परिवेश जो उनसे कार्य करवाते हैं पर अगर संस्कारों की नीव  मजबूत  हो तो खुद ही वो समझ जाते हैं...” बच्चे मन के सच्चे ” किसी पुरानी फिल्म के गीत की ये पंक्तियाँ बहुत सीमा तक आज भी ये सन्देश देती हैं कि कुछ मामलों में तो बच्चों को ही गुरु मान लिया जाए तो श्रेष्ठ होगा.शिशु को ईश्वर का अनमोल वरदान और  अनुपम कृति कहा गया है...

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